बुधवार, 23 नवंबर 2011

ग़ज़ल,

अजब सी दूरी दरम्यान में बन आई है;
न वो बुलाता है हमे, न हम जाते हैं...

जो भी मिलता है, दिल से लगा के रखते हैं;
न ख़ुशी जाती है वापस, न ग़म जाते हैं...

जो दहलीज बना रखी थी कभी हमने;
आज उसी के बाहर, मेरे कदम जाते हैं..

इसी आहट का कभी इंतज़ार होता था;
इसी आहट पे अब हम सहम जाते हैं...

दिलों में आग भी अब ज़रूरी है "शाहिद";
सर्द मौसम में जज़्बात भी जम जाते हैं...

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

me kaisi aag hai "shahid".../..dil jala, ghar jala, chiraag jala...

....

तुम मुझसे छूट रहे हो
मुट्ठी से रेत की तरह
मै जितना जोर देता हूँ
तुम उतना दूर जाते हो...

कभी तुम आईने से कहते हो
सूरत बदल डालो;
कि जितना दिन ये ढलता है;
तुम उतना दूर जाते हो...

उजाला घर में मेरे
आता जाता है;
मुझसे जो भी मिलता है
मुझे समझाता जाता है ...

मुझको तकसीम कर देती
है मेरी तन्हाई,
मै जितना भीड़ में होता हूँ
तुम उतना दूर जाते हो...

सोमवार, 21 नवंबर 2011

Ghazal

कल जो आऊंगा घर तुम्हारे ,तो पहचान लेना;
धडकने  तेज़ हो जाएँ तो,हाथ थाम लेना....

जो मेरे चेहरे की उदासी चली जाए कहीं;
तो तुम इस बात का भी इलज़ाम लेना...


ग़ज़ल

फिर से एक रात बेगानी हुयी;
ज़िन्दगी यूँही आनी जानी हुई..

वो बात की वक़्त को थाम लेंगे;
आज कितनी बेमानी हुई..

अपनी तकदीर लिखने का इरादा अपना;
आज समझा की बदगुमानी हुई...

खुदा के नाम पे खुदा से पर्दा ;
मियां ये तो बेईमानी हुई...

तुम में कुछ बात ही ऐसी थी;
यूँ नहीं दुनिया ये दीवानी हुई...

शनिवार, 19 नवंबर 2011

नज़्म,

बहुत दिनों से तेरा नाम
काग़ज़ पे नहीं लिखा;

आज लिखता हूँ
तो एक
बात याद आती है,

वो तेरा सामने से गुज़र जाना,

फिर कहीं चुपके से नज़र आना,

कभी देखने पे,
हौले से मुस्काना ,

वो तेरा शर्माना,
वो तेरा घबराना,

आफतों का एक पहाड़
टूटा था कभी;

तेरा नाम लिख के मिटाया हमने...
दिल को खूब आजमाया हमने

फिर तेरा नाम मेरे पास ही रहा
मिटता रहा, धुंधला पड़ा;

आज फिर से
उसी रेत में चलते हुए ;

जाने क्यों फिर तेरा नाम नज़र आया..
जिसको हमने सुर्ख काग़ज़ पे दोहराया....




शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अजनबी तुम

तुम हकीकत तो नहीं हो लेकिन,

इतना तो यकीन है मुझको;

कि कहीं दिल के गलियारों में
वो सुहानी शाम रहती है..

कहीं पत्ते भी सरसराते हैं,
बदन में सिहरन सी होती है;

यही लगता है कि नदी के उस पार;

अब भी छोटी सी परी रहती है..

वो झरना जो बहता है साफ़ पानी का;
उसकी भी अपनी एक कहानी है,

वो पत्थर जो उस झील में डूबा भी नहीं,

मुझसे कहता है कोई दास्ताँ सुनाओ तुम;
इतनी जल्दी मत अजनबी बन जाओ तुम.....

ग़ज़ल

मै जहाँ हूँ , वहाँ पे कोई नहीं;
एक सिरा रोज़ उधेड़ता हूँ की कोई राह मिले..

सब को अपने माल-ओ-असबाब की फिक्र है;
गया वो दौर जब लोग बेपरवाह मिले..

ज़रुरत भर का तो खुदा सबको देता है;
परेशां है लोग इस वास्ते की बेपनाह मिले..

शेर कहने से तो शायर का ये नहीं मकसद;
कि बस लोगों से वाह वाह मिले..

और क्या मुझको चाहिए "शाहिद";
के दिल में तेरे थोड़ी मुझको भी पनाह मिले...

-शाहिद

बुधवार, 16 नवंबर 2011

...

हम जो उलझे तो बारहा उलझे ;
दिल के मसले कभी सुलझे ही नहीं..

सबब उस बात का क्या रहा होगा;
ये सोचने में वक़्त भी ज़ाया होगा...

यही सोच के थकता रहा था दिल भी मगर
आज एक उबाल आ गया वाँ भी,

कुछ हादसे रोज़
होने के लिए होते है शायद

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

ग़ज़ल,

मुझसे बिछड़ के मेरी तरह वो भी अकेला;
जब भीड़ में रहता है, मुझे याद करता है...

अपने गुनाह अपने हैं , जो उसका है वो याद;
यही सोचता हूँ , कौन किसको बर्बाद करता है..

एक बार कहीं बैठ के मेरे सवालों के साथ;
वो भी अपने जवाबों को आज़ाद करता है..

ग़म तो मौसम की तरह आते जाते हैं;
हाँ, वो ज़रूर इसमें कुछ इमदाद* करता है..

-शाहिद
* इमदाद=(हेल्प, मदद)



...

जीने का नया रंग फिर दिखा गयी मुझे;
जिंदगी हर बार कुछ सिखा गयी मुझे...

मै जब भी भटका राह से तो थोड़ी देर बाद;
एक नया रास्ता फिर सुझा गयी मुझे...


मंगलवार, 1 नवंबर 2011

चाह

मुझसे मिलने की चाह न कर;
इस बात पे तू फिर आह न भर;

ये दुनिया है , वो झूठी है;
कुछ सच्चा है तो प्यार मेरा,
तेरी आँखों पे जो पर्दा है ,
उस से दिखता है क्या तुझको?

सच्ची बातों को ठुकरा कर;
सुख को पाने की चाह न कर,

तू दुनिया की परवाह न कर,
इस बात पे तू फिर आह न भर;

जो मेरा है वो क्या मेरा,
जो तेरा था वो छीन लिया;
अब मुझको फिर उम्मीद नहीं,
क्या वक़्त बदलेगा तुझको?

अंधेरों की, इस नगरी में 
तू सूरज की फिर चाह न कर,

खुद को अब तू गुमराह न कर,
इस बात पे तू फिर आह न भर;

-शाहिद

अँधेरी गलियों में

मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

जब तक साहस है देखूंगा,
जब तक हिम्मत है देखूंगा,

फिर छोड़ के ये, जग सारा 
तेरे रास्ते पे ही निकलना है;
मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

जब हंगामा थम जाएगा;
जब मन मेरा रम जाएगा;

उस दिन मै खुद से पूछुंगा;
कि मुझको कब फिर ढलना है;

मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

 -शाहिद