शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तुम वो तो नहीं हो?












तुम वो तो नहीं हो?

जिसे वो ढूंढते हुए
आया था यहाँ ?

"कहाँ है अब वो ?"
पूछा उसने ...

वो तो चला गया ;

दो महीने होने को आये

बिना किसी को कुछ बताये
वो अचानक एक दिन चला गया...

कुछ दिन पहले ही मुझे पता चला..

एक ख़त छोड़ गया था;

कह रहा था कि
तुम आओगी यहाँ;

हर रोज़ आता था यहाँ;

यही मुलाक़ात हुयी थी उस से;

उस दिन बहुत उदास था;

मुझसे घंटो तुम्हारी
बाते किया करता था;

ये एक ख़त
छोड़ गया है तुम्हारे नाम;

मैंने उस से कहा भी था
कि पता नहीं मै

ये तुम्हे दे भी पाऊंगा या नहीं ;

पर उसे पूरा यकीन था;

तुम्हे देख के लगता है
वो गलत नहीं था....

रविवार, 11 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

रात एक इश्तहार हो जैसे;
कोई पहले को प्यार हो जैसे...

दिल रह रह के क्यों धड़कता है;
दिल फिर बेकरार हो जैसे..

ज़िन्दगी अब भी क्यों नहीं फानी;
किसी का इंतज़ार हो जैसे..


बुधवार, 7 दिसंबर 2011

मुझसे नफरत भी नहीं कर पाता;
मै प्यार के भी काबिल नहीं उसके ...



...

जैसे मै किसी दुश्मन का किला हूँ कोई ;
जो मिलता है मुझे आग लगाकर छोड़ देता है..

मै कोई इजाद होने वाला हूँ नया जैसा ;
जो भी आता है मुझे आजमाकर छोड़ देता है...


हमारी किस्मत

मुझे
उम्मीदें पालने का शौक़ है;

झूटी उम्मीदें
जो कभी पूरी नहीं होती

वो
जो जीना मुश्किल बना देती हैं;

पर
इन्ही के भरोसे तो दुनिया कायम है

क्यों?

तुम नहीं पालते,
उम्मीदें;

अच्छे
हो तुम;

तुम्हे फर्क नहीं पड़ता नाः?

अच्छा है ,

कितना अजीब हैं ना

 हम दोनों की दुनिया
जो कभी एक सी थी,

आज अलग है
क्यों?

जवाब नहीं दोगे तुम?

रहने दो,


अच्छा नहीं है
तुम्हारे लिए;

तुम्हारी इमेज के लिए;

बुरा बनना
और बुरा होना

सिर्फ हमारी किस्मत में लिखा है....

गूंगा

सिर्फ इस वजह से
की मुंह में जुबान नही मेरे;

मै
बोल नहीं पाता
कुछ;

पर क्या जिनके पास जुबां है
वो बोलते हैं,

वो भी नहीं बोलते;

क्योंकि उनके पास सब है
पर सच कहने की हिम्मत नहीं;

इसलिए मै सोचता हूँ कि
मै गूंगा ही अच्छा हूँ ....

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

दुनिया बदल रही है..













कुछ खून जल रहा है;
कुछ बात चल रही है,

जिंदा तो नहीं हूँ  मैं;
पर सांस चल रही है..

गुस्से में कह गया था;
वो बात खल रही है..

कोई ज़लज़ला है आया;
साँसे मचल रही है..

दिल में है कुछ सन्नाटा;
धड़कन पिघल रही है..

खुशियाँ उधार है अब ;
उदासी भी पल रही है..

अँधेरा है अब आया;
दुनिया बदल रही है..


.....

तू है तो ज़माने को ज़रुरत नहीं मेरी;
अब तक तो उसको भी आदत नहीं मेरी..

कुछ उसूल हैं जो मै भी तेरे साथ नहीं हूँ;
घरों में आग लगाने की चाहत नहीं मेरी..


कविता,

मेरी किताब के खाली पन्ने
मेरी कलम की नीली स्याही
मेरी मेज़ का टूटा कोना;

एक कहानी को याद करते हैं,

मेरे मोबाइल के पुराने मेसेज;
मेरे इ-मेल के पुराने चिठ्ठे;
मेरी डायरी की पुरानी कतरने;

उस जवानी को याद करते हैं..

मेरी हलक का सूखा हिस्सा;
मेरे दिल का रूठा किस्सा;
मेरी आँख की पलकों के हिस्से;

उस पानी को याद करते हैं...

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

ऐसे ही कभी तू भी, आदतें बदल के देख;
रौशनी चाहता है तो, तू भी जल के देख....

सच का रास्ता अभी भी, है वीरान पड़ा हुआ;
न हो तुझको ये यकीन, तो तू भी चल के देख...

शिकवे शिकायतों का सिलसिला अभी भी है;
कभी प्यार की राहों में, तू भी टहल के देख..


रविवार, 4 दिसंबर 2011

तेरी आँखों में












तेरी आँखों में
अभी भी कुछ नज़र आता है;

वो पुरानी बात तो नहीं है
लेकिन

ये चमक याद कुछ दिलाती है,

वो हथेलियों में चाँद को लेकर आना,
उसमे चेहरे को छुपाना तेरा,

छोड़ कर मुझको अकेला तन्हा,
रात को लौट कर जाना तेरा,

वो शमा अब भी
तेरी आँख में जलती तो है,

तू कभी मोम सी इस
बात पे पिघलती तो है,

तुझको पाने के इरादे
किये थे जो उसने

वो तो अब फिर कहीं नहीं बाकी

फिर भी जाने क्यों
तेरी आँखों में उसको ,

अभी भी कुछ नज़र आता है...



शनिवार, 3 दिसंबर 2011

उस मोड़ पे जहाँ मै कमज़ोर पड़ जाता हूँ;
मेरा दोस्त मुझको क्यों वहां खींचता है...


ग़ज़ल,

तू आज  भी उसी शाम से लड़ता क्यों है;
ये बात सच है , तो इस बात पे बिगड़ता क्यों है..

जो छूट जाना चाहता है तुझसे हर बार;
उस को बार बार तू ऐसे पकड़ता क्यों है...

तेरी कौन सी बात है जो नहीं बदली;
फिर यूँ हर बात पे अकड़ता क्यों है..

जब पता है की ये मामला बस का नहीं तेरे;
तू उस मामले में बेवजह पड़ता क्यों है..


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

तरफ किसके हूँ समझ नहीं आता;
दिल को कहता हूँ पर नहीं आता ...

सर में एक आईना सा घूमता है;
नज़र कुछ भी मगर नहीं आता..

उसी जानिब हर रोज़ मै निकलता हूँ;
न जाने क्यों मै घर नहीं आता..

जिस तरफ मेरी ज़रुरत हो उसे;
मै चाहकर भी उधर नहीं आता...

मेरा दिल गाँव में रहता है कहीं;
मै बुलाता हूँ तो शहर नहीं आता..

ज़ुबान से रोज़ निकलना चाहे;
ज़हर फिर भी ज़ुबान पर नहीं आता..

चाँद खिड़की से देखता है हमे;
जाने क्यों कभी अन्दर नहीं आता..

मै पुकारता हूँ उसे रात ख़तम होने तक;
वो ख्वाब फिर भी रात भर नहीं आता..

=====शाहिद

ग़ज़ल,

हाँ, उस से नफरत मगर अब उतनी तो नहीं है;
दिल दुखाने की आदत उसकी गयी भी नहीं है..

वो बात इतनी पुरानी नहीं की भूल जाए;
पर याद रखने वाली कोई नयी भी नहीं है....

ग़लत कहना उसको तो बहुत मुश्किल है मगर;
ये ज़रूर है कि वो बात कही से सही भी नहीं है...

हाँ न कहने से यही रहता है मकसद शायद;
कि मामला मेरी तरफ  से नहीं भी नहीं है...

दिल से दूर उसके कभी न रहे थे मगर;
अजब बात है कि दिल में अभी भी नहीं हैं..

सर पे एक छत कि तलाश थी "शाहिद";
पता चला कि पैरों तले ज़मीन भी नहीं है...

==="शाहिद"

....

रात पे कुछ यकीन हो उसको,

ये धीमी धुन
जो चल रही है यहाँ,

सुन के लगता है कि दिल
सिकुड़ गया हो उसका,

कुछ इरादे चाँद भी ले आता
है मगर ,

दूसरे पखवाड़े
में  न आना उसका
खल जाता है...

जैसे तैसे फिर भी उसका
दिल बहल जाता है;

रात फिर भी क्यों
गुनहगार नज़र आई उसे

ये बात आसन तो था
समझना मुझको;

पर ये कह पाना

खालीपन , सन्नाटे के लिए
रात को गुनहगार ठहराना
 तो ठीक नहीं ,

रात हर रोज़ उस से कहती है
दुखड़ा अपना,

पर उसे
रात पे अब थोडा भी यकीन नहीं ....