बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

आने वाले वक़्त

कभी कभी नज़र लग जाती है
खुद की भी

जो काले साये  खुद पे मंडराते हैं
वो चले जाते हैं वहां तक

जहाँ तक उन्हें नहीं जाना चाहिए।

फिर सारी रात जाग कर सोचा
करते हैं

की क्या हुआ होगा ?
ठीक तो होगा सब ?

ठीक ही होगा सब
दिल कहता है ,

और नहीं होगा तो ?

इस सवाल का जवाब पूछना
भी नहीं बनता।

लेकिन चलना तो होता है
हमेशा की तरह
आगे

बिना कुछ सोचे
यक़ीन के साथ,

सुबह की तलाश में

लेकिन क्या दो लोग
या हज़ारों लोग
यूँही एक दुसरे से अनजान चलने
के लिए बने हैं ?

क्यों दीवार के पार आप
देख  नहीं सकते

कि कोई लड़खड़ाकर गिरा तो नहीं ?
कोई आवाज़ तो नहीं लगा रहा ?

या फिर सब
एक तनहा सुरंग में चल रहे हैं

सिर्फ इस उम्मीद में की उस पार
उजाला होगा

उस पार रास्ता बंद  हुआ तो ?
ये कौन बताएगा इस वक़्त ?

इसका जवाब वक़्त के पास है
आने वाले वक़्त के।


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